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सातवाँ सूक्त
भागवत संकल्प-अभिकांक्षी, आनन्दोपभोक्ता, पशुसत्तासे आनन्द और ज्ञानकी ओर प्रगतिशील
[ इस सूक्तमें अग्निदेवकी स्तुति ऐसी दिव्यशक्तिके रूपमें की गई है जो मानव सत्तामें आनन्द और सत्यकी रश्मि लानेके साथ-साथ हमारे अन्धकारकी रात्रिमें प्रकाश लाती है । वह अग्निदेव मनुष्योंको उनके प्रयासमें अपने स्तरोंतक ले जता है । वह पार्थिव उपभोगके विषयोंका आस्वादन करता है और फिर उन्हें विदारित कर डालता है, किन्तु उसकी सब अनेकानेक कामनाएँ मानवकी विश्वमयताका निर्माण करनेके लिये हैं, मानव सत्ताके दिव्यधाममें सर्वालिंगी उपभोगके लिये है । वह एक ऐसी पशुसत्ता है जो प्रकृतिकी विकासशील प्रगतिके द्वारा आनन्दोपभोक्ताके रूपमें उपलब्धि और आनन्दकी ओर गति कर रही है, जैसे कोई कुल्हाड़ा लिये वनमेंसे गुजर रहा हो । मनुष्यको उसकी यह प्रचण्ड, भावुकतापूर्ण पशुसत्ता अग्निके द्वारा प्रदान की गई है जिसे पवित्र करके शान्ति और आनन्दमें परिणत करना है । इसमें यह दिव्य प्रकाश और दिव्य ज्ञान व आत्माकी जाग्रत् अवस्थाको स्थापित करता है । ] १
सखाय: सं व: सम्यञ्चमिषं स्तोमं चाग्नये । वर्षिष्ठाय क्षितीनामूर्जो नप्त्रे सहस्वते ।।
सखाय:) हे मित्रो! (व:) तुम्हारे अन्दर (क्षितीनां वर्षिष्ठाय) हमारे निवास-धामोंपर1 अपने समस्त प्रचुर ऐश्वर्यको बरसानेवाले, (ऊर्ज: नप्त्रे) ओजके पुत्र और (सहस्वते) शक्तिके स्वामी (अग्नये) शक्तिस्वरूप अग्निदेवके लिये (सम्यञ्चम् इषम्) अन्तर्वेगका पूरा बल एवं (सं स्तोमं) पूर्ण स्तुतिगान हो । २
कुत्रा चिद् यस्य समृतों रण्वा नरो नृषदने । अर्हन्तश्चिद् यमिन्धते संजनयन्ति जन्तव । । _______________ 1 या "lलोकमें निवास करनेवालों पर'' । ६३ (यस्य) जिस अग्निदेवके साथ (नर:) मनुष्यकी आत्मा (कुत्रचित्) जहाँ कहीं भी (समृतौ) पूर्ण मिलाप कर लेती है वहाँ वह (नृषदने रण्वा) अपने निवास-स्थानमें आनन्दोल्लाससे भरपूर हो जाती है, (अर्हन्त: चित्) यहाँ तक कि जो अग्निशक्तिके विषयमें विशेषज्ञ हैं वे भी (यम् इन्धते) उसकी ज्वालाको प्रदीप्त करना जारी रखते हैं और (जन्तव:) सब उत्पन्न प्राणी (संजनयन्ति) उसे पूर्ण जन्म देनेके लिये कार्य करते हैं । ३
तं यदिषो वनामहे सं हव्या मानुषाणाम् । उत द्युम्नस्य शवस ऋतस्य रश्मिमा ददे ।।
(यत्) जब हम (इषः) प्रेरणाकी शक्तियोंको और (मानुषाणाम् हव्या) उन सब चीजोंको जिन्हें मनुष्य यज्ञके रूपमें भेंट करते हैं (संवनामहे) पूर्णतया धारण करते है और उपभोग करते हैं (उत) तब मैं (ऋतस्य द्युम्नस्य शवस: रश्मिम्) सत्यकी किरणको उसके प्रकाश और देदीप्यमान ओजक साथ1 (आ ददे) ग्रहण करता हूँ ।
४
स स्मा कृणोति केतुमा नक्तं चिद् दूर आ सते । पावको यद् वनस्पतीन् प्र स्मा मिनात्यजर: ।।
(स:) वह अग्निदेव (नक्तं दूरे आ सते चित्) रात्रिमें बहुत दूर बैठे हुएके लिए भी (केतुम् आ कृणोति स्म) निश्चय ही अनुभूतिके प्रकाशका निर्माण करता है, (यद्) जब (अजर: पावक:) अपने-आप जीर्ण न होने-वाला, पवित्र करनेवाला वह देव (वनस्पतीन्2 प्र मिनाति स्म) आनन्दकी वनस्थलीके अधिपतियोंसे पूरी तरह इसका निष्पीड़न करता है ।
५
अव स्म यस्य वेषणे स्वेदं पथिषु जुह्वति । अभीमह स्वजेन्यं भूमा पृष्ठेव रुरुहु: ।।
[यत्] जब (यस्य वेषणे) उस अग्निके घेरेमें मनुष्य (पथिषु स्वेदम् ________________ 1. या ''प्रकाशकी, ज्योयोतिर्मय शक्ति और सत्यकी रश्मिको'' । 2. वनस्पतीन--'वनस्पति' शब्दके यहाँ दो अर्थ हैं, 1. वक्ष, वनके स्वामी, पृथिवीकी उपज, हमारी भौतिक सत्ता, 2. आनन्दके स्वामी । अमरत्व प्रदान करनेवाली मदिराका उत्पादक सोम एक विशेष प्रकारका वनस्पति है । ६४
भागवत संकल्प--अभिकांक्षी, आनन्दोपभोक्ता
अव जुह्वति) अपने श्रमका पसीना1 बहाते हैं मानो वे मार्गोंपर अपनी भेंट दे रहे हों, तब वे (भूम पृष्ठा-इव) उन आरोहियोंकी तरह जो विशाल स्तरों2पर पहुँचते हैं, (ईम् अभि अह रुरुहु:) उस स्तरकी ओर आरोहण करते हैं जहाँ वह (स्वजेन्यम्) अपने आत्मानन्दमें निमग्न3 बैठा है ।
६
यं मर्त्य: पुरुस्पृहं विदद् विश्वस्य धायसे । प्र स्वादनं पितूनामस्ततातिं चिदायवे ।।
(यं मर्त्य: विदद्) उसे मरणधर्मा मनुष्य ऐसा देव जाने कि वह (पुरुस्पृहं) मनुष्यकी कामनाओंके इस पुंजको अपने हाथमें लिए है ताकि वह (विश्वस्य धायसे) हमारे अन्दर इस सबको प्रतिष्ठिथत कर सके, क्योंकि (पितूनां स्वादन प्र) वह समस्त भोजनोंके मधुर आस्वादनकी ओर आगे बढ़ता है और (आयवे) इस मानव प्राणीके लिए (अस्ततातिं चित्) घर4 भी बनता है ।
७ स हि ष्मा धन्वाक्षितं दाता न दात्या पशु: । हिरिश्मश्रुः शुचिदन्नृभुरनिभृष्टतविषि: ।।
(स:) अग्निदेव (धन्वा अक्षितम्) इस मरुस्थली5 को जिसमें हम निवास _______________ 1. यहाँ 'स्वेद' शब्दके दोहरे भावपर श्लेष है । वह भाव है (i) पसीना तथा (ii) अन्नरूपी भेंटका प्रचुरतासे टपकाना । 2. ये हैं सत्ताके विस्तृत, निर्बाध, असीम स्तर जो सत्यपर आधारित हैं, ये है खुले स्तदु जो एक जगह विषम कुटिलताके स्तरोंके विरोधी रूपमें वर्णित किए गये हैं । ये कुट्लि स्तर मनुष्योंकी अंतर्दृष्टिको सीमित करके तथा उनकी यात्रामें रोड़े अटकाकर उन्हें अपने अंदर बंद किए रखते हैं । 3. अथवा ''आत्म-विजयी'' । 4. मनुष्यका घर, उसके अस्तित्वका उच्चतर दिव्य लोक, जिसे देव उसकी सतामें यज्ञ.के द्वारा बना रहे हैं । यह घर है पूर्ण परमानन्द जिसमें सम्पूर्ण मानवीय कामनाओं तथा आनन्दोपभोगोका रूपान्तर होता है और जिसमें वे सब अपने आपको खो देते हैं । इसी लिए अग्निशक्ति, जो पवित्र करनेवाली है, भौतिक सत्ता और उपभोगके सब रूपोंको निगल जाती है, ताकि उन्हें उनके दिव्य प्रतिरूपमें परिणत कर सके । 5. भौतिक सत्ता जिसे उन धाराओं या नदियोंसे सींचा नही जाता जो अतिचेतनाके आनन्द और सत्यसे अवतरित होती हैं । ६५ करते हैं (दाता स्म हि) निश्चय ही टुकड़े-टुकड़े कर देता हैं, (पशु: न आ दाति) जैसे कि पशु अपने भोजनको काटकर टुकड़े-टुकड़े करता हैं । (हिरिश्मश्रु:) उस पशुकी दाढ़ी स्वर्णिम प्रकाशसे युक्त है । (ऋभु:) वह शिल्पी है, (शुचिदन्) पवित्रता ही उसका दाँत है । (अनिभृष्ट-तविषि:) उसके अन्दर विद्यमान शक्ति उसके तापसे कभी संतप्त नहीं होती । ८
शुचि ष्म यस्था अत्रिवत् प्र स्वधितीव रीयते । सुषूरसूत माता क्राणा यदानशे भगम् ।।
(शुचि स्म) निश्चय ही वह पवित्र है, (यस्मै) जिसके लिये (अत्रिवत्) वस्तुओंके भोक्ताके रूपमें (स्वधिति:-इव) प्रकृति1के द्वारा, मानो एक कुठारके द्वारा (प्र रीयते) प्रवाहशील विकास साधित किया जाता है । (माता सुषू: असूत) उसकी माता सुखपूर्ण प्रसूतिके साथ उसे बाहर लाती है, (यत्) जिससे कि वह (क्राणा) माताके कार्योंको सिद्ध कर सके और (भगम् आनशे) आनन्दोपभोग2का रस ले सके ।
९ आ यस्ते सर्पिरासुतेऽग्ने शमस्ति धायसे । ऐषु द्युम्नमुत श्रव आ चित्तं मर्त्येषु धा: ।।
(अग्ने) हे अग्निशक्ति ! (सर्पि:-आसुते) प्रवाहशील ऐश्वर्यको हमपर पूरी तरह चुआनेवाली ! जब तू (आ [ भवसि ] ) ऐसे व्यक्तिको प्राप्त करती है (य:) जो (ते धायसे) तेरे कार्योंको स्थापित करनेके लिये (शम् _______________ 1. यहाँ पुन: 'स्वधिति'के दोहरे अर्थपर श्लेष है । एक अर्थ है कुल्हाड़ा अथवा कोई और चीरनेवाला उपकरण, दूसरा प्रकृतिकी स्वयं व्यवस्था करनेवाली शक्ति--''स्वधा'' । यह एक रूपक है कि दिव्य शक्ति मानवीय कुल्हाड़ेके साथ भौतिक सत्ताके जंगलोंमेंसे आगे बढ़ रही है, किन्तु कुल्हाड़ा है प्रकृतिका नैसर्गिक आत्मव्यवस्था करनेवाला विकास । प्रकृतिका अथ है वैश्व शक्ति, वह माता जिससे यह दिव्य शक्ति, बलका पुत्र उत्पन्न हुआ है । 2. दिव्य भोग (भग) जो भग देवताके द्वारा अर्थात् सत्यकी शक्तिसे उपभोग करनेवाले देवताके द्वारा विशेष रूपसे निरूपित होता है । ६६ भागवत संकल्प--अभिकांक्षी, आनन्दोपभोक्ता
अस्ति) आनन्दपूर्ण शान्ति1से संपन्न हैं, तब तू (एषु मर्त्येषु) ऐसे मर्त्योंमें (द्युम्नं) प्रकाश और (श्रव:) अन्तःस्फूर्त ज्ञान (आ धा:) प्रतिष्ठित कर (उत) और (चित्तम्) सचेतन आत्माको भी (आ ( [धा: ] ) प्रतिष्ठित कर ।
१०
इति चिन्मन्युमध्रिजस्त्वादातमा पशुं ददे । आदग्ने अपृणतोऽत्रि: सासह्याद् दस्यूनिष: सासह्यान्नून् ।।
क्योंकि (इति चित्) इस लक्ष्यके लिए (अध्रिज:) भौतिक सत्तामें उत्पन्न हुआ मैं (मन्युं) भावुकतापूर्ण मनको और (पशुं) पशु2सत्ताको (त्वा-दातम् आ ददे) तेरे उपहारके रूपमें ग्रहण करता हूँ । (आत्) और फिर (अग्ने) हे संकल्पाग्नि ! (अत्रि:) वस्तुओंका भक्षक (अपृणत: दस्यून्) उन विभाजकोंको3 जो उसकी पूर्णताको पोषित नहीं करते (ससह्यात्) पराजित करे और वह (नृन्) उन आत्माओंको भी (ससह्यात्) वशीभूत करे जो (इषः) उसपर अपनी प्रेरणाओंके साथ धावा करती हैं । _____________ 1. वेदमे 'शम्' तथा 'शर्म' शान्ति और आनन्दका अर्थ प्रकट करते हैं । यह आनन्द सुसाधित श्रम, शमी, से या यज्ञके कार्य से मिलता है: वहाँ जाकर संग्रामका श्रम और यात्राका श्रम अपना विश्राम पाते हैं, वहाँ ऐसे परमानन्दका आधार प्राप्त हो जाता है जो संघर्ष और परिश्रमकी पीड़ासे मुक्त हो चुका होता है । 2. शब्दार्थ है वासनायुक्त मन और पशु । परन्तु पशु शब्दका अर्थ 'प्रकाशकी प्रतीकात्मक गाय' भी हो सकता है, जैसा किँ वेदमें प्रायः ही होता है । उस दशामें इसका अभिप्राय होगा भावुकतापूर्ण मन और प्रकाशित मन । परन्तु पहला अनुवाद सूक्तके सामान्य आशयसे और शब्दके अपने पूर्व प्रयोगसे अपेक्षाकृत अच्छा मेल खाता है । 3. दस्युओंको जो आत्माके विकास और एकत्वको रवण्ड-खण्ड करते और काटते हैं और उसकी दिव्यशक्ति, आनन्द और ज्ञानपर आक्रमण करना और उसका विनाश करना चाहते है । वे अन्धकारकी शक्तियाँ है, दनु या दिति अर्थात् विभक्त सत्ताके पुत्र हैं । ६७
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